सीता जन्म कथा
मिथिला में अकाल पड़ा था, कई वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। मिथिला के राजा जनक इससे चिंतित होकर ऋषि-मुनियों से सलाह लिया। मिथिला नरेश ऋषियों ने सलाह दिया, अगर महाराज स्वयं खेत में हल चलाएँ तो इन्द्र की कृपा हो सकती है। सोने का हल बना और मिथिला नरेश जनक पृथ्वी के कृषक बनें।
मान्यता है कि, रावण ने ऋषि-मुनियों से कर (tax) मांगा था, ऋषियों ने अपने एक-एक बूंद रक्त से एक घड़ा भर कर रावण के पास भेज दिया।
घड़े को अपने विनाश का कारण जानकर दशानन ने उसे लंका से दूर मिथिला प्रांत में धरती में दफना दिया। हल चलाते समय हल के आगे का भाग- सीत एक घड़े से से टकराया। रावण के पाप का घड़ा फूट गया और राक्षस कुल के नाश का कारण बनने वाली महाशक्ति प्रकट हुई।
घड़े में एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक निःसंतान थे। महाराज जनक उस त्रिभुवन निधि को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर पुत्री बना लिया। महारानी ऐसी अलौकिक पुत्री पाकर कृतार्थ हो गई। वह सौभाग्यशाली तिथि थी वैशाख शुक्ल नवमी जब सीता जी का प।
हल का अग्रभाग, जिसे ‘सित’ कहते हैं, उससे लगने से उत्पन्न होने के कारण, कन्या का नाम ‘सीता’ रखा गया था। साक्षात श्री लक्ष्मी के आगमन से प्रकृति भी झूम उठी, वर्षा देवी के पग पखारने आ गई। अकाल का नमोनिशान मिट गया और धरती लहलहा उठी, चारों ओर हरियाली छा गई।
‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुसार भगवान श्रीराम के जन्म के सात वर्ष, एक माह बाद वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को माता सीता का प्राकट्य हुआ।
मान्यता है कि बिहार स्थित सीममढ़ी का पुनौरा नामक गाँव ही वह स्थान है, जहाँ राजा जनक ने हल चलाया था। पतिव्रताओं की प्रथम पूज्या जगत्जननी माता जानकी का जन्मोत्सव जानकी नवमी, राम नवमी की ही भांति मिथिला प्रांत में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। भारतवर्ष राम से पहले सीता माता का नामोच्चारण करता है।
जानकी नवमी को सम्भव हो तो व्रत रखकर उत्साहपूर्वक सीताजी का जन्मोत्सव दोपहर के समय मनाया चाहिए। इस कार्य के लिए कार्यकालव्यापिनी तिथि ग्रहण करना चाहिए। व्रती को माता सीता के चरित्र की कथा पढ़ना और सुनना चाहिए।
इस दिन वैष्णव संप्रदाय के भक्त माता सीता के निमित्त व्रत रखते हैं और पूजन करते हैं। इस पावन पर्व पर जो व्रत रखता है और भगवान रामचन्द्र जी सहित माता सीता का विधि-विधान से, सामर्थ्य के अनुसार, भक्तिपूर्वक से पूजन करता है, उसे पृथ्वी दान का फल, सोलह महान् दानों का फल तथा सभी तीर्थों के दर्शन का फल अपने आप मिल जाता है। अत: इस दिन व्रत करने का विशेष महत्त्व है।
रामायण की कथा सभी हिन्दू धर्मावलंबी जानते हैं। पतिव्रत धर्म पालन हेतु पति के साथ वन जाकर, लंका की विभत्सिका में भी पतिव्रता धर्म का निर्वाह करके भी अग्नि परीक्षा देने वाली जगत माता को कोटि-कोटि नमन है।
परित्यक्ता होकर भी माता ने लव-कुश जैसे वीरों को जन्म देकर नारीत्व और मातृत्व का आदर्श प्रस्तुत किया। ये माता सीता की ही शिक्षा थी की, लव-कुश दो बालकों ने अयोध्या के विश्व विजयी सेना को, लंका विजयी कपि दल को, श्री राम के भाईयों को और राघवेंद्र को भी रणभूमि पर पराजित कर दिया।
उपनिषदों, वैदिक वाङ्मय में माता सीता के अलौकिकता व महिमा का उल्लेख है, उन्हें शक्तिस्वरूपा कहा गया है। ऋग्वेद में वह असुर संहारिणी, कल्याणकारी, सीतोपनिषद में मूल प्रकृति, विष्णु सान्निध्या, रामतापनीयोपनिषद में आनन्द दायिनी, आदिशक्ति, स्थिति, उत्पत्ति, संहारकारिणी, आर्ष ग्रंथों में सर्ववेदमयी, देवमयी, लोकमयी तथा इच्छा, क्रिया, ज्ञान की संगमन हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें सर्वक्लेशहारिणी, उद्भव, स्थिति, संहारकारिणी, राम वल्लभा कहा है। ‘पद्मपुराण’ उन्हें जगतमाता, अध्यात्म रामायण एकमात्र सत्य, योगमाया का साक्षात् स्वरूप और महारामायण समस्त शक्तियों की स्रोत तथा मुक्तिदायिनी कह उनकी आराधना करता है।
देवी वेदवती और रावण कथा (माता सीता के पूर्व जन्म की कथा)
देवी सीता के विषय में एक अन्य कथा वेदवती नाम स्त्री से संबंधित है। कथा के अनुसार लंका के राजा रावण ने हिमालय का भ्रमण करते एक ऋषि कन्या को देखा। उसका नाम वेदवती था। उसे देखते ही रावण मुग्ध हो गया। वह कन्या के निकट गया और अभी तक उसके अविवाहित रहने का कारण पूछा।
वेदवती ने बताया कि उसके पिता उसका विवाह विष्णु से करना चाहते थे। परन्तु एक राक्षस के मुझ पर मोहित होने के कारण उसने मेरे पिता का वध कर दिया। पति के वियोग में माता भी मर गई। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए तपस्या का मार्ग अपनाया।
रावण ने शुरु में कन्या को स्नेह से फुसलाने की कोशिश की, परन्तु उसके नहीं मानने पर उसने वेदवती के केश पकड़ लिए तब उसने रावण के द्वारा पकडे गये बालों को काट दिया और दौडते हुए अग्नि कुंड मे कूद कर अपनी जान दे दी। वही देवी वेदवती अगले जन्म में एक कन्या के रुप में जन्मी और रावण के विनाश का कारण बनी।
एक कथानुसार अगले जन्म में वेदवती कमल के रुप में जन्मी। ज्योतिषियों के कहे अनुसार इस कमल को समुद्र में फेंक दिया गया। यही कमल जल मार्ग से होता हुआ कन्या रूप में राजा जनक को मिली। वही कन्या जानकी और सीता के नाम से जानी गई।
देवी सीता के विभिन्न नाम
जनक सुता होने के कारण इनको ‘जानकी’, मिथिलावासिनी होने सके कारण ‘मिथिलेश कुमारी’ नाम से भी इनको जाना जाता है।
उपनिषदों—वैदिक वाङ्मय में उन्हें शक्तिस्वरूपा कहा गया।
ऋग्वेद में वह असुर संहारिणी, कल्याणकत्र्री
सीतोपनिषद में मूल प्रकृति, विष्णु सान्निध्या
रामतापनीयोपनिषद में आनन्द दायिनी, आदिशक्ति, स्थिति, उत्पत्ति, संहारकारिणी, आर्ष ग्रंथों में सर्ववेदमयी, देवमयी, लोकमयी तथा इच्छा, क्रिया, ज्ञान की संगमन हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें सर्वक्लेशहारिणी, उद्भव, स्थिति, संहारकारिणी, राम वल्लभा कहा है।
पद्मपुराण उन्हें जगतमाता, अध्यात्म रामायण एकमात्र सत्य, योगमाया का साक्षात् स्वरूप और महारामायण समस्त शक्तियों की स्रोत तथा मुक्तिदायिनी कहा गया है।
देवी सीता के शक्ति स्वरूपा हैं। माता सीता की तपस्या और त्याग अविस्मरणीय है। जानकी नवमी के पर्व पर सीता-राम का पाठ करें और अपने समस्त कष्टों का नाश करें।
जय हिंद